पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२२५

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उथलपथल तल करहु सकल बसुधा धरि नाठौ । जल-मय थल करि देहु जलधि सब थल भरि भाठौ ।। सुर किन्नर नर नाग अस्व-हर्ता जिहि पावा । तुरत तुरंगम छीनि ताहि जम-लोक पठावा ॥१०॥ रैहैं आहुति देत भए दीच्छित हम तब लौँ । करिहौ पूरन जज्ञ पाइ वाजी नहिं जब लौ ॥ तात तन मन लाइ बेगि बिक्रम बिस्तारो। धरै ईस कर सीस करै कल्यान तिहारौ ॥११॥ पितु-आयसु सुनि सकल सुमति-नंदन मन मारे । तमकि तालि भुजदंड चंड विक्रम अभिलाषे॥ चले नाइ पद माथ हाथ मोछनि पर फेरत । सिंहनाद विकराल लाल लोचन करि हेरत ॥१२॥ जोजन जोजन बाँटि खोदि खोजन महि लागे । मूल-कुदाल-गदाल-घात-रव सब जग मनहु खाइ हिय घाइ मेदिनी मर्म-बिदारी-- टेरति उच्च विषाद-नाद सौँ हरि दुख-हारी ॥१३॥ प्रवल प्रहारनि पौन चपल वाजी लॉ चमकत । हलचल होत समुद्र भद्र-अद्री-उर धमकत ॥ उड़त फुलिंग असेस सेस माना फुफुकारत । सुरपतिहूँ पछतात प्रलय-आगम निरधारत ॥१४॥ जागे॥