पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२२६

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गैंडा सिंह गयंद रीछ आदिक बनचारी। राकस-असुर-समाज उरग महि-उदर-बिहारी॥ बिदलित होत सगोत बिकल बिललात बिसूरत । हाहाकार मचाइ दिसनि करुना सौं पूरत ॥ १५ ॥ तहस-नहस करि सहस साठ जोजन बसुधा-तल । जंबुदीप चहुँ कोद खादि सब कियौ रसातल ॥ उलट-पलट है गई सकल मिति थिति जलथल की। उड़ी अचलता-धाक धूरि है बिचलि अचल की ॥ १६ ॥ देव दनुज गंधर्व नाग तब सब अकुलाए । सर्व लोक के पूज्य पितामह पहँ जुरि आए ॥ माथ नाय मन पाइ हाथ जुग जोरि सुबानी। कै उदास भरि साँस कही जग-त्रास-कहानी ॥१७॥ सगर-सुवन सुख-दुवन भुवन खोदे सब डारत । जलचारी बहु सिद्ध संत मारे अरु मारत ॥ कछु काहू की कानि आन उर मैं नहिँ राखत । परम प्रचंड उदंड बदन आवत सो भाषत ॥ १८ ॥ 'इहै किया मख-भंग इहै हरि लिया तुरंगम' । यौँ कहि हिंसत सबहिं लहहि जासौं जहँ संगम ॥ साठ सहस महिपाल-पूत महि-मर्म बिदारत । त्राहि-त्राहि भगवंत भए पानी सब आरत १९॥