पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२२८

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पितु-प्रेरित पुनि चले बिपुल-बल-बिक्रमधारी। साठ सहस बरिवंड बीर सुर-नर-भय-कारी। खोदि पताल उताल खोरि सब खोजन लागे । मच्या महा उत्पात नाग-असुरादिक भागे ॥ २५ ॥ दिग-छोरनि की कोर लगे सब दौरि दबावन । सगर-प्रचंड-प्रताप-दाप-धाँसा धमकावन ॥ देखे दिग्गज तिन बिसाल बल बिक्रमवारे । सिर पर परम अपार भार धरनी को धारे ॥ २६ ॥ करि प्रदच्छिना पूजि सबनि सादर सिर नायौ । कहि मख-भंग-प्रसंग सकल निज काज सुनायौ ॥ पै तिनहूँ सौं मिली नैकु नहिँ सोध तुरग की। तब उदास है लही दसा मनि-हीन उरग की ॥ २७ ॥ सब मिलि सोचन लगे कौन करतब अब कीजै । जासौं पितु-हित साधि जगत अतुलित जस लीजै ॥ खोजे सकल पताल ब्याल-असुरादि बिदारे । बल विक्रम सम सौर्य भए सब ब्यर्थ हमारे ॥ २८ ॥ कोउ आपुन बनि बिज्ञ अज्ञ दैवज्ञनि भाषत । कोउ सरोष सब दोष दैव माथे पर राखत ॥ कहत सबै बिन तुरग उरग-पुर सौं जो जैहैं। पुरजन-परिजन-पितहिँ कौन मुख मलिन दिखैहैं ॥ २९ ॥