पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२२९

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काहू विधि जो सोध कहूँ बाजी की पावै । तौ कालहु की गाल फारि तुरतहि उगिलावै ॥ पैविन जानै हाय कौन मैं हाथ दिखा। काको स्रोनित तृषित कृपानहिँ पान करावै ॥ ३० ॥ इमि बिलखत बतरात चकित चितवत चख रीते। भए मंद-मुख-चंद गर्व-सर्वरि के बीत ॥ पूरब-दक्खिन-छोर-ओर गवने उत्तर तें। चले अग्नि में मनहु प्रेरि भावी-कर वर तें ॥३१॥ भई छीक पग-संग अंग बाएँ सब फरके । सरके सकल उछाह अकथ भय भरि उर धरके । पै निरास-हठ ठानि बढ़े यह मानि अभागे। अब धौँ अलहन कौन अस्व-अ-लहन के आगे ॥ ३२ ॥ मिल्या जात मग माहिं ठाम इक परम मनोहर । निज सोभा मनु स्वर्ग गाड़ि तह धरी धरोहर ॥ मनि-मय पर्वत-पुंज मंजु कंचन-मय धरनी। तेज-रासि दिग-छोर उए माना सत तरनी ॥ ३३ ॥ देखे तिन तप करत तहाँ मुनिवर-बपुधारी । स्वयं कपिल भगवान भूमि-भय-निखिल-निवारी । ध्यानावस्थित सांतरूप पदमासन रोम-रोम सौं प्रभा-पंज चहुँ पास पसारे ॥३४॥ मारे।