पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२३०

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इक दिसि देख्यौ चरत चारु निज मख को बाजी। उठी उमगि सब-अंग हर्ष-पुलकनि की राजी॥ दबी दीनता गई ग्लानि खिसियानि सिरानी। भावी-बस उर बहुरि अमित अहमति अधिकानी ॥ ३५ ॥ निहचय जानि अजान कपिलदेवहिँ हय-हर्ता । जज्ञ-विधन की मूल सकल निज स्रम का कर्ता ॥ धरि धरि मूल कुदाल सैल बिटपनि की सापा । धाए बुद्धि-बिरुद्ध क्रुद्ध जलपत दुर्भाषा ॥ ३६॥ रे दुरमति दुर्भाग्य दुष्ट दुर्वृत्त दुरासय । कायर कूर कुपूत कपट-रत कुटिल-कला-मय ॥ हय चुराइ पाताल पैठि बैठयो बक-ध्यानी । सगर-सुतनि की पै महान महिमा नहिँ जानी ॥ ३७॥ कोलाहल सुनि चौंकि चपल पल कपिल उघारे । निरखे सगर-किसोर घोर-बल-बिक्रमवारे ॥ करि कराल हग लाल तमकि तिनकै तन ताक्यौ । कियौ हुमकि हुंकार छोभि त्रिभुवन भय छाक्यौ ॥ ३८ ॥ सब अंगनि इक-संग दीठि दामिनि लाँ दमकी । वज्र-घात लौँ अति कराल “हु" की धुनि धमकी ॥ देखत-देखत भए सकल जरि छार छनक में । दारु-पुत्तलनि माहिँ लगी मनु आगि तनक मैं ॥ ३९ ॥ इमि सगर-नृपति-नंदन सकल कपिल-कोप परि जरि गए। मनु साठ सहस नरमेध मख गंग-अवतरन-हित भए॥ ४० ॥