पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२३१

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तृतीय सर्ग इत नित आहुति देत रहे नृप जज्ञ जगाए। अस्व अस्व-हार अस्व-खोजिनि लव लाए। भए विविध अपसगुन परयौ उर भभरि अचानक । मख-मंडप मुद-मूल लग्यौ हग लगन भयानक ॥ १ ॥ बहु दिन बीते जानि आनि कछु हृदय सकाए । अंसुमान सौँ कहे भूप वर वचन सुहाए॥ तव पितरनि काँ गए तात वहु दिवस सुहाए । हय-हेरन के फेर माहिँ सब आप हिराएं ॥२॥ देव दनुज नर नाहिँ तिन्हें कोउ बाधनहारी। पै संकित चित होत दैव-करतब गुनि न्यारौ ॥ तिनको समुझि सुभाव सुद्ध उद्धत अभिमानी । लखि असगुन उर उठति असुभ-संका अनजानी ॥३॥ तुम निज पुरषनि सरिस विज्ञ वल-विक्रम-धारो । हंस-बंस के सब-प्रसंस्य-गुन-गन-अधिकारी ॥ खोजि अस्व तिन सहित परम हित करौ हमारी । चारिहु जुग मैं रहै सुजस सुभ अमर तिहारौ ॥ ४॥