पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२३२

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धारौ कठिन कृपान पानि धनु बान सँभारौ । महिनीचें बहु बसत जीव हिंसक ध्रुव धारौ ॥ प्रतिबादक बधि बाँधि बंद्य-बूंदनि अभिनंदा । लहौ सिद्धि सानंद सकल-दुख-दंद निकंदा ॥ ५ ॥ धरि आयसु सुभ सीस ईस-चरननि चित दीने । अस्त्र सस्त्र पाथेय सूर सेनप सँग लीने ॥ अंसुमान सुख मानि चल्यौ हेरन घर बाजी। गुरु बसिष्ठ-पद पूजि बंदि बिपनि की गजी ॥ ६॥ गिरि-खोहनि खाडिनि गंभीर सो सम करि सोध्यौ । कूप-सरित-सर-ताल-खाल-पालनि मन बोध्यौं । पै न अस्व की टोह कहूँ काहू सौँ पाई। न तु पताल-पुर-पंथ दियौ कहुँ दृगनि दिखाई ॥७॥ इक दिन देख्यौ जात भूमि-नीचे का मारग । सगर-सुतनि को खन्यौ अतल-बितलादिक-पारग ॥ तिहि लखि ललकि कुमार लग्या दृग-डोरनि थाहन । कछु बिस्मय कछु हर्ष कछुक चिंता साँ चाहन ॥ ८॥ भानु-बंस की बहुरि बीर बर बिरद बिचारयौ। कर कृपान उर ईस-आस तिहिँ मग पग धारयौ ॥ जाइ रसातल धाइ दिब्य दिग्गज सब देखे । देव-दनुज-सेवित निहारि अति सुभ करि लेखे ॥ ९॥