पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२३६

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मन ठाने धर्म-धीर जो बीर इन्हें तारन सो स्रम साधि अभंग गंग इहिँ प्रास्रम अानै॥ परत छार सो धार तुरत सिगरे तरि जैहैं। कपिल-साप को दाप पाप के ताप नसैहैं ॥ २५ ॥ कोऊ अपर उपाय तिन्हैं तारन की नाही । हम करि गूढ़ बिचार चारु देख्यौ मन माहीं । तात अब लै तुरग तात तुम सपदि सिधावा । जोहत बाट भुषाल काल जनि बृथा बितावा ।। २६ ॥ अंसुमान करि कान विस्नु बाहन की बानी । है बिस्मित-चित नमित-सीस बहु बिनय बखानी ॥ कयौ सपुलकित गात बात सुनि तात तिहारी। गुप्त-गंग-गुन-गान-सुनन-स्रद्धा उर धारी ॥ २७॥ तातें करि अब कृपा कही प्रनतारति-वारन । अपर नदिनि सौं अधिक गंग-महिमा का कारन ॥ जो कपिलहु को कठिन साप करि दूरि सकति है । परम-पाप-पर्बतड चटकि चकचूरि सकति है ॥ २८ ॥ अंसुमान की मंजु बचन-रचना-चतुराई। सुनि खगपति-मति-सीव फड़कि गुनि ग्रीव हलाई सुमिरि गंग-गुन-रूप भए सुख-मगन एक छन । पुनि सँभारि उर धारि धीर बोले प्रमुदित-मन ॥ २९ ॥