पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२३७

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अहो तात हम कहा गंग को बात चला। सहस सारदा सेल जाहि कहि पार न पावै ॥ पूरन ब्रह्म-स्वरूप विस्त-वकवाद वही है। निर्गुन-सगुन-विवाद-बीच मर्जाद वही है ॥ ३० ॥ कोटिनि विधि-हरि-हरहि विविध जो नाच नचावत । निज इच्छा अनुसार सृजत पोषत विनसावत ॥ वह ताही को द्रवीभूत सुभ रूप बिमल है। ताहीत ताके प्रभाव को भाव प्रवल है॥३१॥ ताकी महिमा अति महान को जानि सकत है। पारावार अपार कौन करि पार सकत ह ।। सेवत ताहि बिरंचि संचि सादर मन लाए। हरि हर ताके भूरि भाग पर रहत सिहाए ॥ ३२ ॥ ब्रह्मा-पुत्र बसिष्ठदेव कुल-इष्ट तिहारे। जानत गंग-प्रभाव-भाव त्रिभुवन ते न्यारे ।। निज-नाथहिँ सुनि कहत कया उतपति की ताकी। हमहूँ कछु मति सरिस वात बुझी महिमा की ॥ ३३ ॥ माया ब्रह्म स्वरूप जुगल तामें इक थल हैं। भुक्ति-मुक्ति-फल दिव्य दोऊ ताकै करतल हैं। कोउ न असंभव कान ताहि बिनहूँ कछु कारन । एकै बात बिहाइ पाइ पापी नहि तारन ॥ ३४॥ इमि गुनत गंग-गुन-गन गहकि गरुड़-गिरा गद्गद भई । मनु प्रवल प्रवाह अथाह की तरल तरंगनि परि गई ॥३५॥