पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२३८

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चतुर्थ सर्ग अंसुमान सुनि गुप्त गंग-महिमा मन-मानी। हाथ जोरि पुनि पच्छि-नाथ सौं बिनय बखानी ॥ सुनि यह रुचिर रहस्य-बात तव तात अनोखी। अजगुत भयौ महान जाति चित-वृत्ति न तोखी ॥१॥ स्रद्धा बढ़ी अपार अपर बृत्तांत सुनन की। तव आनन सौं चुवत चारु सुभ सुमन चुनन की । तातें पूछन चहत कछुक उर ठाइ दिठाई । वालक जानि अजान धरौ जनि रोष-रुखाई ॥२॥ कोटिनि बिधि हरि संभु आदि सुर-गन तुम भाषे । सबको नेता कह्यो एक जाके सब राखे । ताको कछु सुभ नाम धाम अरु काम बखानौ । जाते यह भ्रम-भौर-परयो मन लहै ठिकाना ॥३॥ बहुरि कहौ सो अति अनूप जल-रूप भयो क्यौँ । बिधिही के गृह पूज्य सकल सुर-भूप भया क्यों ।। महा-मोह-तम-तोम भरयौ उर-ब्योम ' प्रकासौ। ज्ञान-भानु स-मलान करत संसय-अहि नासौ ॥४॥