पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२३९

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सुनत कुँवर की विनय दीन छल-हीन सुहाई। गुनत गंग-कल-कथा-सुनन की आतुरताई ।। हरिजानहु-हिय दुलसि कहन-बद्धा सरसानी । इमि मुख-मग हे अनि उहार वानी उमगानी ।। ५ ।। यह इतिहास इतिहास पुनीत महा-मुद-मंगल-कारी। जद्यपि परम रहस्य देव-मुनिहूँ-मन-हारी।। तउ अधिकारी जानि तुम्हें हम कछुक सुनावत । कहत सुन्यौ निज प्रभुहिँ तत्त्व ताको गहि गावत ॥ ६॥ अखिल-कोटि-ब्रह्मांड - परम - प्रभुता - ध्रुव - धारी । कृस्नचंद आनंद-कंद स्वच्छंद-विहारी॥ नित नव लीला ललित ठानि गोलोक-अजिर मैं । रमत राधिका-संग रास-रस-रंग रुचिर मैं ॥७॥ इक दिन लहि कातिक-पुनीत-पूनौ मन-भाई। श्रीराधा-उत्सव महान अति आनँद-दाई ॥ बिधि हरि हर लै मुख्य देव गोलोक सिधाए । जुगल-दरस की सरस लालसा लोचन लाए ॥ ८॥ देखि तहाँ की परम रम्य सुखमा सुधराई । तजी चकित-चित-चखहुँ सुभाविक चंचलताई ॥ लहि अमंद आनंद एकटक देखि रहन को । लूख्यौं सुर-गन लाहु नैन अनिमेष लहन का ॥९॥