पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२४१

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मध्य कच्छ मैं अरुन अच्छ अच्छयवट राजत । मनहु लोक-पति-सीस छत्र मानिक-मय छाजत ॥ कोटि-चंद-द्युति-दिव्य लसत तहँ चारु चंदावा । सज्जित विविध विधान लाइ सव साज सँजोवा ॥ १५ ॥ ताके नीचें सुघर सहस-दल कमल सुहायो । अति विचित्र जिहि चित्र न सब्दनि जात खंचायो । सुभ षोड़स-दल कमल अमल राजत तिहि ऊपर । अष्ट दलनि को बहुरि बनज सोभित ताहू पर ॥ १६ ॥ तीन्यौं क्रम सौं अधिक अधिक सोभा-सरसाए। पद्मराग बहु-रंग लाइ रचि रुचिर बनाए । कंचन-मय किंजलक-दलक-धुति झलमल झलकति । मर्कत-मनि-कृत-कलित-कनिका-छवि छुटि छलकति ॥१७॥ कंजहि सी सुख-पुंज परम अति अजगुतहाई । सुवरन माहिँ सुगंध मनिनि में कोमलताई ॥ तिहिँ थल की सुखमा अनूप कासौँ कहि आवै । जो माया निज-प्रभु-बिलास-हित हुलसि बनावै ॥ १८ ॥ मध्य कंज पर मंजु रतन-सिंहासन सोहै। जाकी सुखमा कहत सहम-मनि-धर-मन मोहै ॥ ताल-मेल साँ मेलि रतन बहु-रंग लगाए। जिनकी द्युति सौं कोटि नवग्रह रहत चकाए ॥ १९ ॥