पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२४२

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तापर लखे बिराजमान बर जुगल-बिहारी। गौर - स्याम - दोउ - तेज - तत्त्व-मृदु - मूरति-धारी ॥ घनीभूत सुभ सुद्ध सच्चिदानंद अखंडित । ब्रह्म अनादि सु आदि-सक्ति-जुत गुन-गन-मंडित !! २० ॥ इक इक बाहिँ उमाहि किए गलवाहि बिराजै। इक इक कर बड़भाग बनज बंसी कल भ्राजै ॥ मनु तमाल पर सोनजुही की लसै माल बर । स्याम-तामरस-दाम प्रफुल्लित सोनजुही पर ॥ २१॥ नील पीत अभिराम बसन द्युति-धाम धराए। मनहु एक को रंग एक निज अंग अँगाए । निज-निज-रुचि-अनुहार धरे दोउ दिव्य विभूषन । जो तन-धु ति की दमक पाइ चमकत ज्याँ पूषन ॥ २२ ॥ उर बिलसत सुभ पारिजात के हार मनोहर । सब लोकनि की फूल-गंध के मूल सुघर बर । चारु चंद्रिका मंजु मुकुट छहरत छबि-छाए । मनहु रतन तन-तेज पाइ सिर चढ़ि इतराए ॥ २३ ॥ बिपुल पुलक दुहुँ गात परसपर सरस परस के । पीत नील मनि माहिँ मनौ अंकुर सुचि रस के ॥ सुधि करि बिबिध बिलास फुरति अंग-अंग फुर हरी । मनु सुखमा के सिंधु उठति अानंद की लहरी ॥ २४ ॥