पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२४३

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दोउ दोउनि काँ निरखि हरपि आनंद-रस चाखत दोउ दोउनि की सुरुचि मूक भावनि साँ राखत !। दोउ दोउनि की प्रभा पाइ इकरेंग हरियाने । इक-मन इक-रुचि एक-प्रान इक-रस सरसाने ।। २५ ॥ मुखनि मंद मुसकानि कृपा-उमगानि बतावति । चखनि चपलता चारु ढरनि-आतुरी जतावति ॥ जो ब्रह्मांड निकाय माहि सुखमा सुधराई । द्वै दल ताके परम बीज के सुभ सुखदाई ॥२६॥ लखि वह सुखद समाज-साज वह निखिल निकाई । वह माधुरी स-लौन तथा वह मधुर लुनाई !! भए देव-गन मगन दृगनि आनँद-जल छायो । बलिहारी कहि रहे मौन गहरि गर आयौ ॥ २७ ॥ यह देवनि को देखि दसा प्रभु जन-हितकारी । कृपा-दृष्टि सौं हेरि हरषि हिय-हिलग निवारी ।। बहुरि पूछि कुसलात मंजु मृदु बचन उचारचौ । आसन उचित दिवाइ सवनि सादर बैठारचौ ॥ २८ ॥ लगी सारदा प्रेम-पुलकि कल कीरति गावन । बजाइ झूमि नूपुर झनकावन । लय-लोकनि साँ चारु चित्र बहु-भाय खचाए । रुचिर राग-रँग परि हृदय-दृग लोल लुभाए ॥ २९ ॥ बीना मधुर