पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२४५

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चतुरानन धरि ध्यान जानि तव मरम प्रकास्यौ। सबनि धरायी धीर पीर-संसय-तम नास्यौ ।। संभु-गान-सुख-सुधा-सिंधु सुभ की लहि लहरै । दोउ लावन्य-स्वरूप द्रवित है यह छिति छह ॥ ३५ ॥ यह सुनि सब सुख पाइ उमगि अस्तुति-अनुरागे । पुनि-दरसन-हित करन विनय अति आतुर लागे । प्रभु मनसा लहि संभु जगत-हित पर चित दीन्यो । मुक्ति-दीप भरि नेह प्रकासन को प्रन कीन्यो ॥ ३६॥ तब श्रीसक्ति-समेत भक्ति-वस-बिस्व-बिहारी । बिरही-दुख-कातर कृपाल प्रनतारति-हारी॥ घनीभृत है फेरि दरस दै हृदय सिराए । कृपा अनुग्रह मनहु जुगल विग्रह धरि आए ॥ ३७॥ तिनकै संगहि भई प्रगट इक बाल मनोहर । अखिल-लोक-सुख - पुंज - मंजु - जीवन - देवी बर ॥ दोउ-सुख-संपति-परम-मूल-धन-बृद्धि-रमा बहुरि-दरस-रस-अलह-लाहु-आनंद-प्रभा सी ॥ ३८॥ स्यामा सुधर अनूप-रूप गुन-सील-सजीली । मंडित - मृदु - मुख - चंद-मंद - मुसक्यानि-लजीली ॥ काम-बाम-अभिराम- सहस - सोभा - सुभ-धारिनि । साजे सकल सिँगार दिब्य हेरत हिय-हारिनि ॥ ३९ ॥ सी।