पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२४६

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प्रियतम कौ लावन्य प्रिया की मंजु मिठौनी । दोउ मिलि ताकै अंग-अंग अद्भुत मिठ-लौनी॥ सुखमा-संग उमंग महा महिमा की धारे। मनहु रूप-गुन-सार मेलि तन अतन सँवारे ॥ ४०॥ प्रभु के पावन प्रवल भाव साँ चाव चढ़ाई। श्री-राधा-कल-कृपा-बानि की कानि पढ़ाई॥ गंगा नाम पुनीत वन-रसना-मन-रंजिनि। प्रबल-प्रभाव-अमोघ महा-अघ-अोघ-बिभंजिनि ॥४१॥ लागी ललकि लुभाइ स्यामसुंदर-मुख जोहन । निज जोहन के भाय बिस्व-मोहन-मन मोहन ॥ ताको रूप अनूप अकथ गुन भाव लजाँहैं। लखि सोउ सुख सरसाइ भए रस-बस ललचाँहैं ॥ ४२ ॥ निरखि नीठि निज और परति दुहुँ-दीठि कनौड़ी। अनख-घटा अति सघन घूमि राधा-उर आँड़ी ॥ उठी चमक चित भए सजल दृग-छोर छबीले । प्रगटे सब्द कठोर भाव बरसे, तरजीले ॥४३॥ देखि रोष को रंग गंग कछु सकुचि सकानी । पुनि गुनि प्रेम-प्रसंग मनहिँ मन मृदु मुसकानी ॥ सूच्छम बपु धरि बहुरि बेगि प्रभु-अंग समाई । अर्धागिनि को कहै भई सर्वागिनि भाई ॥४४॥