पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२४७

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रहे देव-गन मगन विनय बहु विस्तारन मैं । प्रभु के सगुन चरित्र-चित्र चित-पट-धारन मैं। ब्रह्मद्रव को रूप दृगनि भरि देखि न पाए । ताते ताके दरस-ताभ-हित बहुरि ललाए ॥ ४५ ॥ स्रुति-मंत्रनि बिस्तारि विविध प्रस्तुति विधि ठानी। सुर-गन की अभिलाष-उमग कर जोरि बखानी।। तब प्रभु परम उदार सकुचि स्वामिनि-मुख चाह्यौ । उन स-मंद-मुसकानि अनुग्रह हगनि उमायो॥ ४६॥ तिहिँ अवसर सुख-पुंज मंजु सुभ-गुन-सरसाए । सकल-सुकृत-फल-कल्प-विटप-ऋतुराज सुहाए॥ सुनि सुर-गन-बर-बिनय गंग नाथहु मनसा ज्वै । पद-नख ते पुनि प्रगट भई जल-रूप रुचिर है॥४७॥ लखि वह पावन पाथ सकल मिलि माथ नवाया। बहु भाँतिनि अभिनंदि महा आनंद मनाया । कोउ छवाया लै सीस दृगनि कोउ अंजन कीन्या । कोउ मार्जन कोउ उमगि आचमन करि सुख भीन्यौ ॥४८॥ प्रभु-चख चाहि उमाहि चतुर विधि भक्ति-भाव भरि । लियौ कमंडल पूरि बेद-मंत्रनि मंडल करि । लहि प्रभु-दरस-प्रसाद देव मन मोद मढ़ाए । करि करि दंड-प्रनाम सकल निज धामनि आए ॥४९॥