पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२४८

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राखत सजग बिरंचि ताहि धारे निज छाती। जथा जुगावत सूम संचि संपति जिमि थाती ॥ ताही के बल अकर-सुकर की कानि करत ना। अनमिल रचत प्रपंच रंच उर धरक धरत ना ॥ ५० ॥ सुन्यौ गंग-गुन-ग्राम तात सुभ-धाम सुहाया। कहत-मान जिहि लखौ छार औरै रंग छाया ॥ गंग कहा यह गंग-कथा ऐसहिँ जहँ है है। सकल तहाँ को पाप-ताप-कलमष ध्रुव ध्वैहै ॥ ५१ ॥ अब तुम तुरत तुरंग-संग निज पुर पग धारौ । सगरराज-मख-काज पूरि जग सुजस पसारौ ॥ पुनि करतब्य बिचारि बारि पावन सोइ आना। पितरनि तारन-हेत अपर कोउ जतन न जानौ ॥ ५२ ॥ इमि कहत कहत खग-पति पुलकि प्रेम-बारि ढारन लगे। मनु मानस-मुकताहल हुलसि सुरसरि-सिर वारन लगे॥ ५३ ॥