पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२४९

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पंचम सर्ग अंसुमान करि कान गंग-गुन-गान मनोहर । धरचौ संचि तिहि ध्यान माहि जिमि धर्म-धरोहर ॥ पुनि पितरनि के दुसह-दसा-दुख पर चित दीन्या । करि उसास को मंत्र आँसु सौँ तरपन कीन्या ॥१॥ परि पायनि धरि धीर मॉगि आयसु खगपति सौं । चल्या कुँवर कर जोरि कुसल बिनवत जगपति सौं। कपिलदेव-पद पूजि पाइ कछु सांति सिरायो । सुमिरत गंग तुरंग-संग सेना मैं आया ॥२॥ दै पताल लौँ नीव भानु-कुल-सुकृत-सदन की। श्री उतारि तहँ धारि सकल बृत्रारि-बदन की। जड़ जमाइ भवितब्य भगीरथ-जस-बर बट की। सोधि खानि गंभीर भूति लै पुन्य-पुरट की ॥३॥ हय-पावन को हरष सोक पितरनि को धारे । कीन्या पलटि पयान कछुक उमगत मन मारे ॥ निकस्यौ सदल सपाति हुमसि हरियात बिबर ते । सगर-सौख्य-तरु कढ़यौ उर्बरा के उर बर ते ॥४॥