पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२५१

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नृपहि निरखि अकुलाइ धाइ पायनि लपटाया। छिति-पति उमगि उठाइ छोहि छाती छपटाया । दै असीस सुभ [घि सीस सादर बैठारयो । पै ज्याँहाँ करि प्रेम छम को प्रस्न उचारया ॥ १० ॥ परयो करेजी थामि थहरि त्यों रोइ कुँवर वर । निकसे सकसि न वचन भयौ हिचकिनि गहर गर । आँसु ढारि भरि साँस सचिव-सुत तव अगुवायो । काह विधि सविषाद विषम संवाद सुनायौ ॥११॥ उमड़ या सोक-समुद्र भई विप्लुत मख-साला। बड़वागिनि सी लगन लगी जज्ञागिनि-ज्वाला ॥ गया तुरत फिरि सब उछाह आनंद पर पानी । वढी पीर की लहर धीर-मरजाद नसानी ॥ १२ ॥ लगे सकल सिर धुनन कांड करुना को माच्यौ। मनु बनाइ बहु वपुष बरुन तिहि मंडप नाच्यौ ।। लागी खान पछाड़ धाड़ मारन सब रानी । मानहु माजा मज्जि तलफि सफरी अकुलानी ॥ १३ ॥ भयौ भूप जड़-रूप अंग के रंग सिराए। बज्राघात सहस्त्र साठ संगहि सिर आए। कढ्यौ कंठ नहिँ बैन न नैननि आँसु प्रकास्यौ । आनन भाव-विहीन गाँव ऊजड़ लौँ भास्यौ ॥ १४ ॥