पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२५२

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मुनिहुँ सकल है बिकल लगे लोचन-जल मोचन । नृप की दारुन दसा देखि और कछु सोचन ॥ कोउ परखत मुख मलिन हाथ छाती कोउ लावत । अभिमंत्रित-जल-छीट छिरकि कोउ सीस जगावत ॥१५॥ तव गुरुवर धरि धीर कियौ निर्धारित मन मैं । कोसल-पति-कुसलात वनति केवल रोवन मैं ॥ जौ अति उवलत सोक-सलिल दृग-पथ नहिँ पैहै । भूरि भाप सौँ पूरि तुरत तो घट फटि जैहै ॥ १६ ॥ मनुष-सुभाव-प्रभाव बहुरि गुनि मुनि विज्ञानी । अति अचूक उपयुक्त जुक्ति ठानो हित-सानी ॥ अंसुमान कौँ पकरि पानि नृप अंग लगायौ । करुना-क्रंदन करत कुँवर कंपत लपटायौ ॥ १७॥ लहि सन्निधि सम-सील पूत के धरकत हिय की। अनुकंपित कछु भई सिरा नरपति जग-प्रिय की ज्यों कोउ तंत्री-बाज उठत कछु गाजि गमक सौं । सम-सुर सात्म्य समीप-बाद की नाद-धमक सौं ॥१८॥ सनै सनै पुनि परन लगी नरपति की पलकै । आनन पर लहरान लगी पाननि की झलकै ॥ तब बसिष्ठ इमि कह्यौं नृपति निरखा निज नाती। काका यह असमंज कुँवर की सौंपत थाती ॥१९॥