पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२५७

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यह सुनि मुनि-पद पूजि तुरत नृप आज्ञा लीनी। तप-विधि संजम-नियम-रीति उर अंकित कीनी ।। लहि आयसु हरषाइ आइ निज गेह गुहार्यो । मंत्री मित्र कलत्र 'पुत्र सव आनि जुहार्यो ॥ ४० ॥ दे दिलीप कौँ राज विविध नृप-काज वुझायो । मंत्रिनि मित्रानि साँपि प्रजा-पालन समुझाया ।। वर-विहंगपति-वदित गंग-महिमा सव भाखी। बहुरि दई दृढ़ आन राखि दिग-पालनि साखी ॥४१॥ जो इहिँ आसन होइ राज-सासन-अधिकारी । सुरसरि-अानन-हेत करै कानन तप भारी॥ जब लौँ कोउ पतंग-बंस महि गंग न आने । तब लौँ सलभ पतंग-अर्थ इहि कुल-हित मान ॥ ४२ ॥ यौं कहि चले भुपाल नेह नातौ सब तारे। राज-सदन-सुख साँ मुख किया जाइ हिमवंत-सिखर तप महा कठिन तिन । अंत लयौ सुरलोक-वास वीतै आयुस-दिन ॥ ४३ ॥ तब दिलीप तप-काज विदा माँगी गुरुवर सौं । पै तिन जान न दिया ग्रस्त गुनि रोग-रगर सौं॥ रोगी ऋनिया अंग-भंग आतुर अविचारी। ये नहि काहू भाँति तपस्या के अधिकारी ॥४४॥ सुरपुर-दुर्लभ मोरे॥