पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२५९

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षष्ठ सर्ग जाइ गोकरन-धाम तृपति अति आनंद पायो । मनु गज तोरि अलान उमगि कदली-बन आया। सिद्धि-छेत्र सुभ देखि नेत्र तहँ ललकि लुभाए । मनहु साधि मनि-खानि-साध सोधी हुलसाए ॥१॥ तरु बल्ली बहु भाँति फलित प्रफुलित तहँ भाव । मनहु कामना सफल होन के सगुन दिखावै ॥ सर सरिता सब स्वच्छ जथा-इच्छित जल पावत । मनु मन-आसय पूर होन के जोग जतावत ॥ २॥ गुंजत मंजु मलिंद-पंज मकरंद-अघाए। मनहु मुदित मन करत तोष के घोष सुहाए । पसु-पच्छिनि के बंद करत आनंद-नाद कल । धन्यवाद मनु देत पाइ बांछित जीवन-फल ॥३॥ विद्याधर गंधर्व तप-बृद्ध सयाने। विचरत तहाँ बिनोद-मोद-मंडित मनसाने ॥ मुनि-शास्त्रम अभिराम ठाम-ठामनि छबि छावै । साधक-गन मैं सिद्धि तहाँ खोजति चलि पावें ॥४॥ सिद्ध