पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मंगलाचरण जाकी एक बूंद कौँ बिरंचि विबुधेस, सेस, सारद, महेस है पपीहा तरसत हैं । कहै रतनाकर रुचिर रुचि ही मैं जाकी मुनि-मन-मोर मंजु मोद सरसत हैं । लहलही होति उर आनंद-लवंगलता जासौं दुख-दुसह-जवासे झरसत हैं। कामिनि-सुदामिनी-समेत घनस्याम सोई सुरस-समूह ब्रज-बीच बरसत हैं । चित-चातक जाकौं लहत, होत सपूरन-काम । कृपा-बारि बरसत बिमल,जै जै श्रीघनस्याम ॥