पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२६०

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सो सुभ धाम ललाम देखि भूपनि-मन मान्या । तहँ तप-कष्ट उठाइ इष्ट-साधन ठिक ठान्या ॥ पूजि छेत्र-पति पुलकि माँगि अायसु मुनि-गन साँ। लगे भूप-मनि करन कठिन जप तप तन मन सौ ॥ ५ ॥ कंद मूल तिन करि अहार कछु वार विताए । कछुक दिवस तुन पात परे पुहुमी चुनि खाए । कछु दिन वारि बयारि पान करि कछु दिन टेरे। इहिँ विधि कष्ट उठाइ किए व्रत घोर घनेरे ॥६॥ रह्यौ भूप को रूप भावना के लेखा सौ। अस्ति नास्ति के बीच गनिन-कल्पित रेखा सौ॥ सुर-मुनि अग्र समन देखि तप उग्र सिहाए । नृपहिँ निवारन-हेत सवनि बहु हेत बुझाए ॥ ७॥ रहे ध्यान धरि जपत भूप विधि-मंत्र निरंतर । भरि जिय यह उमंग गंग आवै अवनी पर ॥ तर सगर के सुवन भुवन मुद मंगल छावै । ड” देखि जम-दूत पुरी पुरहूत वसावै ॥ ८ ॥ वीते वरस अनेक टेक जब नै न टारी। सयौ सीस धरि धीर वीर हिम आतप बारी॥ तव ताकै तप-तेज तपन लाग्यो महि-मंडल । उफनि उठ्यौ ब्रह्मंड भभरि भय भर्यों अखंडल ॥९॥