पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२६१

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सुर नर मुनि गंधर्ष जच्छ किन्नर कहलाने । नभ-जल-थल-चर विकल सकल थल थल हहलाने ॥ जानि पर्यो त्रिपुरारि तमकि तीजौ दृग खोल्यो । त्रासनि परी पुकार चारमुख-शासन डोल्यौ ॥१०॥ लै सँग देव-समाज काज विसराइ जगत को उठि आतुर अकुलाय ल्याय मन भाय भगत का ॥ चले प्रसंसत हसत हंस हाँकत चतुरानन । पहुँचे आनि तुरंत तपत भूपति जिहिं कानन ॥ ११ ॥ कृपा-छलक-छवि नैन बैन गद्गद मुख मुलकित । वर बरदान-उमंग-तरंगनि सौँ तन पुलकित ॥ उर-उछाह-कारी सम-हारी। सुघर सब्द सौं कलित ललित विधि गिरा उचारी॥१२॥ अहो भूप-कुल-कमल-अमल-अति-प्रबल-प्रभाकर । ‘किया कठिन तप जाहि निरखि रबि लगत सुधाकर ॥ जाकै प्रखर प्रभाव पदारथ परम सुलभ सब । तजि सँकोच जो चहहु लहहु सानँद हमसौँ अब ॥ १३॥ सुनत बैन सुख-दैन भगीरथ नैन उघारे । विबुधनि-बलित प्रसन्न-बदन बिधि निकट निहारे ॥ तप-तापै तन परी सुखद प्रासा-जल-धारा। सुधा स्रवन भरि चली उबरि ढरि नैननि द्वारा ॥१४॥ मृदुल मनोहर