पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२६२

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सरक्यौ सब दुख-दंद चंद-आनन मुद छरक्यौ । फरक्या सुभग सरीर चीर वलकल की दरक्या ।। जोरि पानि परि भूमि भूमि-पति सिर पद परसे । सव देवनि सादर प्रनाम करि अति सुख सरले ॥ १५ ॥ पाद अरघ आसन सुमूल फल फूल सुहाए । अरपि जथा-विधि विनय-वचन कर जोरि सुनाए । जय चतुरानन चतुर चतुर-जुग-जगत-विधायक । जय सुर-नर-मुनि-बंध सदा सुंदर-बर-दायक ॥१६॥ तव दरसन सौं आज काज पूजे सब मन के। लखि यह देव-समाज साज छाए सुख-गन के ॥ धर्यो माथ पर हाथ नाथ तो देहु यह वर । तारन-विरद-उतंग गंग आवे पुहुमी पर ॥ १७ ॥ असन वसन वर बाम धाम भव-विभव न चाहै। सुरपुर-सुख विज्ञान मुक्तिहूँ पै न उमाई ॥ अति उदार करतार जदपि तुम सरवस-दानी । हम लघु जाचक चहत एक चिल्लू-भर पानी ॥ १८ ॥ ताही सौं तप-ताप दूरि करि अंग जुड़ेहैं । ताही सौँ सब साप-दाप पितरनि के जैहैं। ताही सौं जग सकल महा मुद मंगल छैहैं। ताही सौं सुख पाइ लाख अभिलाष परहै ॥१९॥