पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२६५

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डगमग पग मग धरत तजे वरदहु हरवर सौं । आए तिहिँ वन सघन विभूषित जो नरवर सौं ॥ देखि भूप को कृसित रूप नैननि जल छायौ। मुंगी-नाद विपाद-हरन सुख-करन बजायौ ॥ ३० ॥ दृग उघारि त्रिपुरारि निरखि नृप निपट चकाए । रहे ललकि छवि-छकित पलक विन पलक गिराए । सुंदर अमल अनूप भव्य भव-रूप सुहायौ । मनु तप-तेज-स्वरूप भूप-श्रागैं चलि आयौ ॥३१॥ हेम-बरन सिर जटा चंद-छवि-छटा भाल पर । कलित कृपा की कटा-घटा लोचन बिसाल पर । फनि-पति-हार-विहार-भूमि वच्छस्थल राजै॥ जग-अवलंब प्रलंब भुजनि फरकति छबि छाजै ॥ ३२ ॥ दृढ़ कटि-धाम ललाम चाम सुभ दुरद-दुवन का। गृढ़ जानु जो भार भरत सहजहिँ त्रिभुवन का ॥ अरुन-कोकनद चरन सरन जो असरन जन के । जिनका गुन-गुंजार करत मन-अलि मुनि-गन के ॥३३॥ गौर सरीर विभूति भूति त्रिभुवन की साहै। आनन परम-उदार-प्रकृति-छबि-छलक बिमोहै॥ उमगि कृपा को बारि पगनि डगमग उपजावत । तकि तकि तांडव नचत दमकि-दम डमरु बजावत ॥ ३४॥