पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२६६

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मानि कामना सिद्ध जानि तूठे दुख-हारी। भयौ भूप-मन मगन व आनंद-नद भारी ॥ किं-कर्तव्य-विमूढ़ गूढ़ भायनि भरि भाए । रहे थकित से दंग छनक विन अंग डुलाए ॥ ३५ ॥ पुनि कछु धीर वटोरि जोरि कर परे धरनि पर । वरुनिनि भारत पाय पखारत नैन-नीर-झर ॥ कंपित गात लखाति प्रेम-पुलकावलि विकसति ॥ उमगि कंठ लौँ आइ वात हिचकी है निकसति ॥ ३६॥ यह करुनामय दृस्य संभु प्रनतारति-हागे। सके न देखि विसेषि भक्त-दुख भए दुखारी ॥ नृपहिँ और कछु करन कहन को ठौर न दीन्यौ । अंतरजामी जानि भाव अंतर को लोन्यौ ॥३७॥ भुज उठाइ हरपाय वाँकुरौ विरद सँभारयो । दियौ विसद बर-राज भूप को काज सँवार्यो । हम लैहैं सिर गंग दंग जग हाहि जाहि ज्वै । याँ कहि अंतर्धान भए नृप रहे चकित है ॥ ३८ ॥ उठि महि सौँ महिपाल लगे चारों दिसि हेरन । कृपा-सिंधु करुना-निधान कहि इत उत टेरन । सिव का सुखद स्वरूप चखनि भरि चहन न पाए। मन की मनहीं रही हाय कछु कहन न पाए ॥ ३९ ॥