पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२६९

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इत सुरसरि की धाक धमकि त्रिभुवन भय-पागे । साल सुरासुर विकल बिलोकन आतुर लागे ॥ दहलि दसौँ दिग-पाल बिकल-चित इत उत धावत । दिग्गज दिग दंतनि दवोचि दृग भभरि भ्रमावत ॥५॥ नभ-मंडल थहरान भानु-रथ थकित भयौं छन । चंद चकित रहि गयौ सहित सिगरे तारागन ॥ पैौन रह्यौ तजि गौन गयौ सब भौन सनासन । सोचत सबै सकाइ कहा करिहै कमलासन ॥६॥ विंध्य - हिमाचल - मलय - मेरु - मंदर - हिय हहरे । ढहरे जदपि पषान ठमकि तउ ठामहि ठहरे।। थहरे गहरे सिंधु पर्व बिनहूँ लुरि लहरे । पै उठि लहर-समूह नैं इत उत नहिँ ढहरे ॥ ७ ॥ गंग कयौ उर भरि उमंग तो गंग सही मैं। निज तरंग-बल जो हर-गिरि हर-संग मही मैं ॥ लै स-बेग-विक्रम पताल-पुरि तुरत सिधाऊँ । ब्रह्म-लोक कौँ बहुरि पलटि कंदुक-इव आऊँ ॥ ८ ॥ सिव सुजान यह जानि तानि भौंहनि मन माषे । बाढ़ी-गंग-उमंग-भंग पर उर अभिलाषे॥ भए सँभरि सन्नद्ध भंग के रंग रंगाए। अति दृढ़ दीरघ सुंग देखि तापर चलि आए ॥९॥