पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२७

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परम रम्य आराम सुखद बूंदाबन नितही, पर पावस-सुषमा असीम जानत कछु चितही । जा पर ललकि लुभाइ भाइ भरि आनँदकारी, बिहरत स्यामा-संग स्याम गोलोक-बिहारी ॥१॥ हरित भूमि चहुँ कोद मोद-मंडित अति साहै, नर की कहा चलाइ देखि सुर-मुनि-मन मोहै । मानहु पन्ननि सिला संचि बिरची विरंचि बर, जेहि प्रभाव नहिँ करत नैकुं बाधा भव-विषधर ॥२॥ इत-उत ललित लखाति चटक-रँग बीरवधूटी, मनहु अमल अनुराग-राग की उपजी बूटी । बनि पै झलमलत बिमल जलबिंदु सुहाए, मनु बन पै घन वारि मंजु मुकुता बगराए ॥३॥ तरुवर तहाँ अनेक एक सौं एक सुहाए, नाना-बिधि फल फूल फलित प्रफुलित मन-भाए। कहूँ पाँति बहु भाँति अमित आकृति करि ठाढ़े, कहूँ झुंड के झुंड झुक झूमै गथि गाढ़े ॥४॥ चंपा- गुंज-लवंग - मालती - लता सुहाई, कुसुम-कलित अति ललित तमालनि सौं लपटाई। साजे हरित दुकूल फूल छाजे बनिता बहु, निज-निज नाहै अंक निसंक रही भरि मानहु ॥५॥ +