पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२७०

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कटि-तट मूल मृगी बाघंबर को कलित कच्छ कटि-तट साँ नाध्या ।। सेसनाग को नागवंध तापर कसि वाँध्यौ ॥ ब्याल-माल साँ भाल वाल-चंद हि दृढ़ कीन्यो । जटा-जाल को झाल-व्यूह गद्दर करि लीन्या !॥ १० ॥ मुंड-माल यज्ञोपवीत अटकाए। गाड़ि डमर तापर लटकाए॥ वर वाहँनि करि फेरि चाँपि चटकाइ आँगुरिनि । वच्छस्थल उमगइ ग्रीव उचकाइ चाय भिनि ॥११॥ तमकि ताकि भुज-दंड चंड फरकत चित चोपे । महि दवाइ दुहुँ पाय कछुक अंतर साँ रोपे । मनु बल-विक्रम-जुगल-खंभ जगथंभन-हारे। धीर-धरा पर अति गंभीर-दृढ़ता जुत धारे ॥ १२ ॥ जुगल कंध वल-संध हुमकि हुमसाइ उचाए । दोउ भुज-दंड उदंड तालि ताने तमकाए। कर जमाइ करिहार्यं नैन नभ-ओर लगाए । गंगागम की वाट लगे जोहन हर ठाए ॥ १३ ॥ वल बिक्रम पौरुष अपार दरसत अँग-ग तैं। बीर रौद्र दोउ रस उदार झलकत रंगरंग तै॥ मनहु भानु-सितभानु-किरन-बिरचित पट बर की। झलक दुरंगी देति देह-द्युति सिवसंकर की ॥१४॥