पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२७१

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बचन-बद्ध त्रिपुरारि ताकि सन्नद्ध निहारत । दियौ ढारि बिधि गंग-बारि मंगल उच्चारत ॥ चली बिपुल-बल-बेग-बलित बाढति ब्रह्मद्रव । भरति भुवन भय-भार मचावति अखिल उपद्रव ॥ १५ ॥ निकसि कमंडल तैं उमंडि नभ-मंडल-खंडति । धाई धार अपार बेग सौं बायु बिहंडति ॥ भयौ घोर अति सब्द धमक सौं त्रिभुवन तर्जे । महा मेघ मिलि मनहु एक संगहिँ सब गर्जे ॥ १६ ॥ भरके भानु-तुरंग चमकि चलि मग सौँ सरके । हरके बाहन रुकत नै नहिँ बिधि हरि हर के ॥ दिग्गज करि चिक्कार नैन फेरत भय-थरके। धुनि प्रतिधुनि सौं धमकि धराधर के उर धरके ॥ १७ ॥ कढ़ि-कढ़ि गृह सौँ बिबुध बिबिध जाननि पर चढ़ि-चढ़ि। पढ़ि-पढ़ि मंगल-पाठ लखत कौतुक कछु बढ़ि-बढ़ि ॥ सुर-सुंदरी ससंक बंक दीरघ दृग लगी मनावन सुकृत हाथ काननि पर दीने ॥ १८ ॥ निज दरेर सौं पौन-पटल फारति फहरावति । सुर-पुर के अति सघन घोर घन घसि घहरावति ॥ चली धार धुधकारि धरा-दिसि काटति कावा । सगर-सुतनि के पाप-ताप पर बोलति धावा ॥ १९॥ कीने ।