पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२७२

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विपुल बेग सौं कबहुँ उमगि आगे की धावति । सौ सौ जोजन लौ सुढार ढरतिहिँ चलि आवति ॥ फटिकसिला के बर विसाल मन विस्मय वोहत । मनहु बिसद छद अनाधार अंबर मैं सोहत ॥२०॥ स्वाति-घटा घहराति मुक्ति-पानिप सौं पूरी । कैधौं आवति झुकति सुभ्र-आभा-रुचि रूरी ॥ मीन-मकर-जलब्यालनि की चल चिलक सुहाई । सो जनु चपला चमचमाति चंचल-छवि-छाई ॥२१॥ रुचिर रजतमय के वितान तान्या अति बिस्तर । झिरति बँद सा झिलमिलाति मोतिनि की झालर ॥ ताके नीचे राग-रंग के ढंग जमाए। सुर-बनितनि के बंद करत आनंद-वधाए ॥ २२ ॥ वर-बिमान-गज-बाजि-चढ़े लखत देव-गन । तिनके तमकत तेज दिब्य दमकत आभूषन । प्रतिबिंबित जब होत परम प्रसरित प्रबाह पर । जानि परत चहुँ ओर उए बहु बिमल बिभाकर ॥ २३ ॥ कबहुँ सु धार अपार-वेग नीचे काँ धावै। हरहराति लहराति सहस जोजन चलि आवै ॥ मनु बिधि चतुर किसान पौन निज मन को पावत । पुन्य-खेत-उतपन्न हीर की रासि उसावत ॥२४॥