पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२७३

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कै निज नायक बँध्यौ बिलोकत ब्याल पास ते । तारनि की सेना उदंड उतरति अकास तैं॥ कै सुर-सुमन-समूह आनि सुर-जूह जुहारत । हर हर करि हर-सीस एक संगहि सब डारत ॥ २५ ॥ छहरावति छवि कबहुँ कोऊ सित सघन घटा पर । फवति फैलि जिमि जोन्ह-छटा हिम-प्रचुर-पटा पर । तिहि घन पर लहराति लुरति चपला जव चमकै! जल-प्रतिबिंबित दीप-दाम-दीपति सी दमकै ।। २६ ॥ कबहुँ वायु-बल फूटि छूटि बहु बपु धरि धावै । चहुँ दिसि ते पुनि डटति सटति सिमटति चलि आवै ॥ मिलि-मिलि द्वै-द्वै चार-चार सब धार सुहाई । फिरि एकै है चलति कलित बल बेग बड़ाई ॥ २७॥ प्रबल माया-बस मैं परि । विचरत जग मैं अति अनूप बहु बिलग रूप धरि ॥ ज्ञान-विधान ईस-सनमुख लै आवै । तब एकै लै बहुरि अमित आतम-बल पावै ॥ २८ ॥ जल सौँ जल टकराइ कहूँ उच्छलत उमंगत । 'पुनि नीचें गिरि गाजि चलत उत्तंग तरंगत ॥ मनु कागदी कपोत गोत के गोत उड़ाए । लरि अति ऊँचे उलरि गोति गुथि चलत सुहाए ॥ २९॥ पै जव