पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२७४

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कहूँ पौन-नट निपुन गौन कौं बैग उघारत । जल-कंदुक के बंद पारि पुनि गहत उछारत ॥ मनों हंस-गन मगन सरद-वादर पर खेलत । भरत भाँवरे जुरत मुरत उलहत अवहेलत ॥ ३० ॥ कबहुँ वायु साँ विचलि वंक-गति लहरति धावै । मनहु सेस सित-वेस गगन त उतरत आवै ।। कबहुँ फेन उफनाइ आइ जल-तल पर राजै । मनु मुकतनि की भीर छीर-निधि पर छवि छाजै ॥ ३१ ॥ कवहुँ सुताड़ित है अपार-वल-धार-वेग सौं। छुभित पान फटि गौन करत अतिसय उदेग सौं । देवनि के दृढ़ जान लगत ताके झकझोरे । कोर आँधी के पोत होत कोउ गगन-हिंडोरे ॥३२॥ उड़ति फुही की फाव फवति फहरति छवि-छाई। ज्याँ परवत पर परत झोन वादर दरसाई॥ तरान-किरन तापर विचित्र बहु रंग प्रकासै । इंद्र-धनुष की प्रभा दिव्य दसहूँ दिसि भासै ॥३३॥ मनु दिगंगना गंग न्हाइ कीन्हे निज अंगी। नव भूषन नव-रत्न-रचित सारी सत-रंगी॥ गंगागम-पथ माहिँ भानु कैयौँ अति नीकी । वाँधी बंदनवार बिबिध बहु पटापटी की ॥३४॥