पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२७६

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पाइ ईस का सीस-परस अानंद अधिकायौ । सोइ सुभ सुखद निवास वास करिवो मन ठायौ ॥ सीत सरस संपर्क लहत संकरहु लुभाने । करि राखी निज अंग गंग के रंग भुलाने ॥ ४० ॥ विचरन लागी गंग जटा-गहर-बन-वीथिनि । लहति संभु-सामीप्य-परम-सुख दिननि निसीथिनि ॥ इहि विधि आनँद मैं अनेक बीते संवत्सर । छोड़त छुटत न बनत ठनत नव नेह परस्पर ॥४१॥ यह देखि दुखित भूपति भए चित चिंता प्रगटी प्रवल । अब कीजै कौन उपाय जिहिँ सुरसरि आवै अवनि-तल ॥४२॥