पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२७७

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अष्टम सर्ग पुनि नृप उर धरि धीर बरद संकर आराधे । बिविध जोग जप जज्ञ नेम व्रत संजम साधे ॥ इक पग ऊपर उनइ सनय बहु बिनय बखानी । जोरि पानि मृदु बानि सानि ढारत दृग पानी ॥१॥ जय जय भव-भय-हरन दरन दुख-दंद दयामय । जय जय तरुनादित्य-तेज करुना-बरुनालय ॥ जय जय असरन-सरन-भरन जग-बिपति-बिदारन । जय जय औढर-सरनि-ढरन सुरसरि-सिर-धारन ॥ २॥ ब्यापक ब्रह्म-स्वरूप भूप करि सुर जिहिं जानत । कहि कहि अकह-अनूप-रूप जिहि बेद बखानत ॥ जय जय दीन-दयाल प्रनत-प्रतिपाल पुरारी । काम-क्रोध-मद-मोह-रहित सेवक-हितकारी ॥३॥ कीन्यौ नाथ सनाथ माथ सुरसरि जो धारी। तुम बिन सकत सम्हारि कौन ताकौ बल भारी ॥ सकल सुरासुर को अपार भय-भार निवारयो । राख्यौ पैज-प्रमान दिया बरदान सँभास् ॥ ४ ॥