पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२७८

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पै कृपाल नहि होइ कामना सफल हमारी । जब लौ महि न सिँचाइ पाइ सुरसरि-चर-बारी ।। कृपा-कोर साँ अव कीजे कोउ सुगम प्रनाली । जाते सुरसरि आइ भरै धरनी-सुख-साली ।। ५॥ सुनि विनती गुनि दुखित दास संकर दिन-दानी । निज विलंब मन मानि सकुच वोले मृदु वानी ॥ अहो गंग सुभ-अंग अहो सुख-सागर-संगिनि । करनि दुरित-भय-भंग तरल-उत्तंग-तरंगिनि॥६॥ कीन्या अकथ अनूप उग्र तप भूप भगीरथ । तव आगम त सुगम-करन-हित अगम परम पथ । लहि विधि साँ वरदान मान हमहूँ सौँ पायो । तव उतरन आतंक पूरि त्रिभुवन थहरायो ॥ ७ ॥ तुम मन मानि सनेह सील पहिचानि पुरानी। करि भूषित मम सीस भरी जग सुजस-कहानी ।। हम तव सुख-प्रद परस पाइ इहिँ भाय लुभाने । रहे राखि निज संग सरस बहु बरस विताने ॥ ८॥ भई भूप की अति अनूप अभिलाष न पूरी । जउ असाध्य स्रम साधि लही विधि साँ निधि रूरी॥ अब तिहि निरखि अधीर पीर कसकति अति उर मैं । तातें तुम जग जाइ सुजस पूरौ तिहुँ पुर मैं ॥९॥