पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२७९

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हरहु पाप के दाप ताप के पुंज नसावौ । सुर-पुर उर मैं महि-महिमा कौ चाव उचावौ ॥ भए छार जरि सगर-कुमारनि कौं निस्तारौ । भूप भगीरथ-अति-अनूप-कीरति बिस्तारौ ॥ १०॥ विलग न माना नैं कु प्रमाना गिरा हमारी । वसिही नित मो सीस कबहुँ छैहौ नहिँ न्यारी ॥ नित तव धार अखंड जटामंडल ते कढ़िहै । जिहि लहि परम प्रमोद गोद बसुधा की मदिहै ॥ ११ ॥ यह कहि कर गहि जटा सटा लौँ सूति सटाई। बिंदु सरोबर ओर छोर ताकी लटकाई ॥ ताते निकसि अपार धार परिपूरि सरोबर । चली उबरि ढरि करि उदोत षट सोत धरा पर ॥ १२ ॥ नलिनी नीत पुनीत पावनी ललित हादिनी । इन तीननि सौं भई आनि प्राची-प्रसादिनी ॥ सुभ सुचच्छु बलसंध सिंधु सीता सुपुनीता । इनसौं पच्छिम चली पढ़ति भूपति-गुन-गीता ॥ १३ ॥ पै न भगीरथ-चित-चाहे पथ सौं महि आई। यह लखि बिलखि भुवाल रहे चिंता अधिकाई ॥ आइ सरोवर-तीर धीर धरि भरि ग बारी । है आरत-आधीन दीन बिनती उच्चारी ॥ १४॥