पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२८०

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जय ब्रह्मा-संपत्ति-सार जय जय ब्रह्मद्रव । जय महेस-मन-हरनि दरनि दुख-दंद-उपद्रव ॥ जय बृंदारक-बूंद-बंद्य जय हिमगिरि-नंदिनि । जय जम-गन-मन-दंड-दान-अभिमान-निक दिनि ॥ १५ ॥ जदपि वक्र तउ सक्र-सदन की सरल निसेनी । जउ नीचे काँ चलति उच्च पद तउ नित देनी ॥ जदपि छुभित अतिकांति सांति-दायनि तउ मन की । जउ उज्जल-जल-रूप तऊ रंजनि रुचि जन की ॥१६॥ देह कृपा-अवलंब अंब व्यंवक-गुन धारौ । भारत भूमि पवित्र करौ वैभव विस्तारौ ॥ सागर पूरि पताल पैठि तहँहूँ जस छावो । सगर-सुननि काँ सोक सारि सुर-लोक पठावौ ।। १७॥ सुनि नृप-विनय निदेस गंग गुनि मन महेस को। सरित सातवी होइ गयौ पथ पुन्य-देस को ।। भागीरथी-पुनीत-नाम-धारिनि दुख-हारिनि । गारिनि जम-गन-दाप पाप-संताप-निवारिनि ॥ १८॥ भए दिब्य स्यंदन चदि आगे। लगी गंग तिन संग भाग भारत के जागे॥ सुगनि सिखरनि तारि फोरि ढाहति ढहरावति । औघट घाट अघाट चली निज वाट बनावति ॥ १९ ॥ भूप भगीरथ