पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२८१

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प्रथम निकसि हिम-कलित कूल पर छबि छहराई । पुनि चहँ दिसि नै ढरकि ढार धारा है धाई ॥ चंद्रकांत-चट्टान चंद्रिका परत सुहाई। मनु पसीजि रस-भीजि सुधा-सरिता उपजाई ॥ २० ॥ तिहिँ प्रवाह मैं मिलित ललित हिम-कन इमि दमकत । सारद बारद माहि मनो तारा-गन चमकत ॥ कै वसुधा-सृगार-हेत करतार सँवारी। सुघर सेत सुख-सार तार-बाने की सारी ॥ २१॥ कहुँ हिम ऊपर चलति कहूँ नीचें धंसि धावति । कहुँ गालनि बिच पैठि रंध्र-जालनि मग आवति ॥ सरद-घटा की बिज्जु-छटा मानौ लुरि लहरति । ऊरध अध मधि माहि मचलि मंजुल छबि छहरति ॥ २२ ॥ कहुँ अटूट वहु धार गिरति हिमकूट-तुंड तैं। एरावत के सुंड मनहु लटकत भुसुंड तें ॥ 'छटकि छीट छबि छाइ छत्र लौँ छिति पर छहरै। सुंड भर्यो जल मनहु फैलि फुफकारनि फहरै ॥ २३ ।। इमि हिम-खंड बिहाइ आइ पाहन-पथ मंडति । ढरकि ढार इक-डार चली गिरि-खंडनि खंडति ॥ फाँदति फैलति फटति सटति सिमिटति सुढंग सौं । सुगनि बिच बिच बढ़ी गंग सरि भरि उमंग सौं ॥ २४ ॥