पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२८५

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ताकै अंतर-प्रोक बसत गो-लोक-बिहारी। सक्ति-सहित सुख-धाम भक्ति-बस जन-दुख-हारी ॥ जाको बिछुरन-छोभ अजी सुरसरि उर राखति । सफरिनि-मिसि धरि अमित नैन दरसन अभिलाषति ॥४०॥ यह अवसर सुभ सुलभ पाइ सो दुख-मेटन को। पैठि जब-उर-अजिर सपदि प्रभु सौँ भेटन को ॥ अति मंगल मन मानि गंग आनंद सरसानी । निज विस्तार समेटि अंजली आनि समानी ॥४१॥ कियौ जगु तिहिँ पान हरषि हरि-नाम उचारत । भावी भूत कुपूत पूत निज कुल के तारत ॥ सुर मुनि सब तिहि समय परम बिस्मय सौं पागे । पर्वत-नृप-महिमा महान गुनि गावन लागे ॥ ४२ ॥ यह दुर्घट घट देखि भगीरथ निपट चकाए । सुठि स्यंदन तें उतरि तुरत आतुर तहँ आए ॥ माथ नाइ कर जोरि सकल सुर मुनि नृप बंदे । गदगद स्वर सति भाय जगु सादर अभिनंदे ॥४३॥ सगर-सुतनि की कही प्रथम अति करुन-कहानी । पुनि बिरंचि-हर-कृपा गंग जासौँ महि आनी ॥ कयौ भयौ अपराध घोर यह सब बिन जानैं । अनजानत की चूक-हूक पर साधु न मानें ॥४४ ॥