पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२८७

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नवम सर्ग सादर सबहिं नवाइ सीस अवनीस भगीरथ । बढ़े बहुरि अगुवाइ 'धाइ चढ़ि बायु-बेग रथ ॥ चली गंगहू संग अंग प्रोजनि उमगाए । ज्याँ कल-कीरति रहति सदा सुकृतिहिँ पछियाए ॥१॥ पुन्य-पाथ परिपूरि करति पर्वत-पथ पावन । सब प्रतिबंध नसाइ आइ गिरि-कंध सुहावन ॥ कूदी धरि धनि-धमक घोर ठाढ़ी खादी मैं । परी गाज सी गाजि पुहुमि-पातक-पाढ़ी मैं ॥२॥ अति उछाह ौं उछरि परी फहराति फलंगति । प्रबन-पाद सौँ दूरि भूरि-बल-पूरि उमंगति ॥ चढ़त चंद की चारु छटा ज्यौँ छिति छबि छावति । उच्च-धाम-अभिराम-पाँति पच्छिम-दिसि आवति ॥३॥ फलकि फेन उफनाइ आइ राजत जुरि जल पर । मनहु सुधा-निधि महत सुधा उमहत तरि तल पर ॥ फवति फुही की फाव धूम-धारा लौँ धावति । गिरि-कोरनि पर मोर-पंख-तोरन-छबि छावति ॥ ४ ॥