पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२८८

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जिनके हाड़ पहाड़-खाड़-विथुरित तिहिँ परसत । सो लहि लहि वर वपुष जाइ सुरपुर सुख सरसत ॥ जुरत न तिते विमान जिते तारति इक संगहि । निज प्रताप-बल पर पहुँचावति गंग-तरंगहि ॥ ५ ॥ विपुल वेग सौं जदपि गाजि गवनत जल तर काँ तउ सफरिनि हित होत सुपथ उमहत ऊपर कौँ । निज अधीन पर ज्याँ प्रवीन विक्रम न जनावै । वरु दै बाहँ उमाहि उच्च पद पर पहुँचावै ॥ ६॥ देव दनुज गंधर्व जच्छ किन्नर कर जोरे । निज निज नारिनि संग अंग बहु भावनि बोरे ॥ भय विस्मय विस्वास पास आनंद उर छाए । दुहुँ कूलनि सुख-मूल स्वच्छ पर परे जमाए ॥ ७ ॥ अद्भुत अकथ अनूप गंग-कौतुक कल देखत । अति अलभ्य यह लाभ ललकि लोचन को लेखत ॥ स्वस्ति-पाठ कोउ पढ़त कोऊ अस्तुति गुनि गावत । कोऊ भगीरथ भव्य भाग को राग कढ़ावत ॥ ८ ॥ कोउ झुकि झाँकन-चाय बाढ़ पर पाय जमावत । पै झाई सौं झुलमुलाइ पाछै हटि आवत ॥ पुनि साहस करि सँभरि सकल खाढ़ी मैं उतरत । पग पग पर दृग दिए किए चित-वित अच्युत-रत ॥ ९॥