पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२९

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पवन-प्रसंग उमंगि देत तरु-पल्लव ताली, चटकावति चहुँ ओर चपल चुटकी चटकाली। मनहुँ तिहूँ पुर की सुषमा बृंदावन आई, बनदेवी सुख-साज साजि बरतति पहुनाई ॥ ११ ॥ पाइ प्रसून-प्रसंग पौन परिमल बगरावत, दाता-ढिग सौं आइ गुनी ज्यौँ जस फैलावत । कबहुँ मंद जल-बिंदु परत कहुँ सुख-सरसाए, आनंद-अनु सहस्र-नैन मनु स्रवत सुहाए ॥ १२ ॥ चहुँ दिसि तैं घन घोरि घेरि नभ-मंडल छाए, घूमत, झूमत, झुकत औनि अतिसय नियराए । दामिनि दमकि दिखाति,दुरति पुनि दौरति लहरें, छूटि छबीली छटा-छोर छिन छिन छिति छह ॥१३।। मानहु संचि सिँगार हास के तार सुहाए, धूपछाँह के बीनि बितान अतन तनवाए । पाइ प्रसंग प्रमोद-पौन कौ सो हलि हलके, पल पल औरै प्रभा-पुंज अद्भुत-गति झलकै ॥ १४ ॥ कहुँ तिनकै बिच लसति सुभग बग-पाँति सुहाई, मुकता-लर की मनौ सेत झालर लटकाई । कहूँ साँझ की किरनि करति कछु कछु अरुनाई, मनु सिँगार की रासि राग-रुचि की रुचिराई ॥१५॥