पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२९०

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कोउ नहात कोउ तिरत कोऊ जल-अंतर धावत । रविहि अर्घ कोउ देत कोऊ हर-हर-धुनि लावत । लै चुभकी कोउ भजत मीत-भय-भीत बिलोकत । कोउ परिहास-विलास-हेत ताका गहि राकत ॥१५॥ कोऊ अच्छरिनि छरत छेड़ि छटि छौंट उछारत । तिनकी उझकनि झुकनि झाँकि कहुँ अनत निहारत ।। कोउ कहुँ तरु-तर बैठि बिसद यह दृस्य निहारत । मोद-आँस-मुक्तालि प्रकृति-देवी पर वारत ॥ १६ ॥ सुमुखि-सुलोचनि-बूंद मंद मुसकात कलोलत । दर-विकसित अरविंद मनी वीचिनि-विच डोलत ॥ जगर-मगर तन-रतन-जोति जल-तल इमि चमकति । तरनि-किरन ज्याँ परत दिव्य दरपन पर दमकति ॥ १७ ॥ न्हाइ आइ पुनि तीर चीर सुंदर सब धारत । करि षोड़स उपचार आरती उमगि उतारत । जहँ तह मंगल-रंग-संग साजे जुवती-गन । नाचत गावत विविध वजावत बाद मगन-मन ॥१८॥ इहि विधि सुरसरि सुर-समाज-सेवित सुख-सानी । भरि विनोद गिरि-गोद मोद-मंडित उमगानी ।। कढ़त सिमिटि इक ओर घोर धुनि सौँ नभ पूरति । ढोकनि हेला करति दुरत ढेलनि चकचूरति ॥ १९ ॥