पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२९४

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सुरसरि-सरि-हिन विसरि प्रान उपमान न मानत । कहे-सुने चिन गुने साल अनुचित सो जानत ॥ सुमिरि गंग कहि गंग गंग-संगति अभिलायत । भापि गंग-सम गंग रंग कविता को राखत ॥ ३५॥ सुमुखि-धुंद सानंद सुवर तन रतन सजाए। विहरत वलित-विनोद ललित लहरत जल भाए ॥ तारनि-सहित अमंद-चंद-प्रतिबिंब मनोहर । मनु बहु वपु धरि फवत फलक-जुत फटिक सिला पर ॥ ३६ ॥ गोरे गात सुहात स्वच्छ कलधौत छरी से। तिन मैं चल चख चमचमात सुंदर सफरी से ॥ मनु जग-जीतन-काज साज सव सवल बनावत । मीनकेतु निज-केतु-मीन सुभ जल विचरावत ॥ ३७॥ तैरत बुड़त तिरत चलत चुभकी ले जल में । चमकति चपला मन सरद-धन-विमल-पटल मैं ॥ तरल तरंगनि-बीच लसति बहुरंगनि सारी। मनहु सुधा-सरि-बाढ़ परी सुरपुर-फुलवारी ॥ ३८॥ अंग-संग जल-धार धंसत जिनके मुकता-गन । सो करि धरि वर वपुष जाइ विहरत नंदनवन । जिन मृग के मद परत छूटि घट-तट ते पानी । तिनकी करत सचोप चंद-वाहन अगवानी ॥ ३९ ॥ इमि निकसि गंग गिरि-गेह त गयो पंथ महि-प्रोक को । करि हरिद्वार काँ अति सुगम द्वार अगम हरि-लोक का॥४०॥