पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२९५

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निर्जन वन लहि सकल हेलि जल-केलि उमाहे । दुसह दुपहरी-दाह विसरि सरि-सलिल सराहै ॥ मनु वन-सुषमा सुखम विषम ग्रीषम की जारी। विहरति गंग-प्रसंग देह धरि दिव्य सुढारी ॥ ५॥ दीरघ-दाघ निदाघ माहि पानी काँ तरसे । सीतल धार अपार पाइ वनचर सुख सरसे ।। अति-अमंद-आनंद-मगन-मन उमगत डोलत। सहज वैर विसराइ आइ कल कूल कलोलत ॥ ६॥ लखत कनखियनि चखत नीर मृग वाघ परसपर । भाजत झपटत वनत पै न तजि नीर सुखद बर ॥ नाचत मुदित मयूर मंजु मद-चूर अघाए। अहि जुड़ात तिन पास पाइ सुख त्रास भुलाए ॥ ७ ॥ कहुँ कीड़त करि-निकर तरंगनि मैं सुख सरसत । मनु कलिद के सिखर-बूंद सित-घन-विच दरसत ॥ कहुँ कपि लटकत नीर अटकि तट-विलुलित डारनि । बालखिल्य मनु लहत सु तप-संचित-सुख-सारनि ॥ ८॥ कहुँ जल-वीचिनि वीच अड़े महिपाकर अरने । जम-वाहन है ब्यर्थ परे मनु सुरधुनि-धरने ॥ सिमिटि ससा कहुँ तीर नीर छकि अधर हलावत । ससि-मंडलहिं अखंड रखन की बिनय सुनावत ॥९॥