पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/२९६

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सुरधुनि-स्वागत-काज साज बन-राज सजायौ। सहित सहाय समाज न्यौति ऋतु-राज पठायो॥ ठाम ठाम अभिराम सुखद सुखमा सौँ पागे । नंदन-वन-आनंद मंद लागत जिहिँ आगे ॥१०॥ वर बल्लिनि के कुंज-ज कुसमित कहुँ सेाहैं । गुंजत मत्त मलिंद-बूंद तिन पर मन मोहैं ।। मना सुहागिनि सजे अंग बहुरंग दुकूलनि । गावति मंगल मोद-भरी छाजे सिर फूलनि ॥ ११ ॥ कहुँ तरुबर बहु भाँति पाँति के पाँति सुहाए । नव-पल्लव-फल-फूल-भार सौं डार झुकाए॥ मनहु धारि सुख-भरित हरित बाने बर माली। अवसर अकथ अलेख लेखि साजी सुभ डाली ॥ १२ ॥ कूजत बिबिध बिहंग संग अति आनँद-साने । मानहु मंगल-पाठ पढ़त द्विज-गन उमगाने ॥ कहुँ बिरदावलि बदत कीर-चारन मन-चारी । सावधान-धुनि धुनत कहूँ परभृत-प्रतिहारी ॥१३॥ नाचत मंजुल मोर भौर साजत सारंगी। करति कोकिला गान तान तानति बहुरंगी ॥ स्यामा सीटो देति चटक चुटकी चुटकावत । घूमि भूमि मुकि कल कपोत तबला गुटकावत ॥ १४ ॥